दिल फाड़ कर,
चल तेरी याद भरता हूँ,
तेरी मुस्कुराहटों की,
एक सौगात भरता हूँ,
जैसे किसी भागते बच्चे ने
स्टैच्यू बोल दिया हो,
वैसे बुत बन, घंटों,
एक दूसरे की आँखों में निहारा था,
फिर एक झटके में,
ब्लश कर, मुँह फिरा,
दिल खोल कर हँस दिया था,
उस हँसी की,
एक आवाज़ भर लेता हूँ,
तब, उन टटोलती आँखों में,
ना जाने क्या ढूँढते रहते थे,
पर अब जब सब साफ़ है,
इस रात चल, तेरे नाम की
एक आह भर लेता हूँ,
दिल में इन यादों को
कस कर बंद करते हैं, फिर
बेपते लिफ़ाफ़े में डाल,
नुक्कड़ पर टंगे,
डाक के लाल डब्बे में डाल
रफ़ू-चक्कर हो जाते हैं,
मालूम है, कोई निकालाने नहीं आएगा
अब डाक के ये जंग लगे डब्बे
कोई खोलता है भला?
अब इश्क़ के एहसास को
शब्दों में पीरोने का तकल्लुफ़
कौन करता है भला?
वो हॉर्ट वाला इमोजी ही काफ़ी है...
और शायद निकाल भी ले,
तो बिना पते के लिफ़ाफ़े को देख
झुंझला, यही कहीं फेंक देगा,
और अगर जल्दबाज़ी में डाकघर तक
पहुँच भी जाए, तो मुहर लगने के वक़्त तक
तो कचरे में चले ही जाना है...
फिर इस से उस कचरे,
ऐसे कई डब्बों से होता हुआ,
वो इश्क़,
और उस इश्क़ का
एक झिझकता हुआ
इकरार,
जो किया सब नाप-तोल कर,
तब भी जब जोखिम
मेरे पल्ले में ज़्यादा ही रहे।
तू वहीं खड़ा,
उम्र, धर्म और जात की
सीमाएँ खींचते रहा,
फिर ठीक ही है,
चलो अब गले नहीं लगते।
उस इश्क़ को, मुर्दा क़रार,
दफ़न करते हैं,
उसी दिल के किसी कोने में,
जिसे फाड़ कर
सिलना शुरू किया है,
जब तू इत्मीनान से,
मैयत से उठ, चल पड़ेगा,
कल सुबह,
मैं फिर नए सिरे से,
ये दिल फाड़,
उन्ही यादों को संजीदा,
कर रहा हूँगा।