कौन समझ पाया है अब तक?
देख कोई पहचाना चेहरा,
हम यूँही मुस्का देते हैं ...
आँखों में जब आंसू आए,
नज़रे कहीं चुरा लेते हैं...
खौफ को अपने झूठलाते हैं,
कायर कहलाने के डर से;
क्या डर से अपने भाव छुपाना
कायरता का रूप नही?
पहली परत के पीछे के डर से,
कौन भला सहमा है अब तक?
एक अरमान किया था कभी तो शायद,
अब याद नही वो बात, मगर
ये याद रहा कि लोगो के डर से
दफना डाला था, कूट पीस कर |
कभी कभी वो प्रेत ख्वाब का,
मेरे सपनो में आ जाता है
फ़िर सपनो में ही जी लेता हूँ
उस ख्वाब को, जिसका कत्ल किया था |
इस पहली परत के पीछे का जीवन,
कौन भला जाना है अब तक?
कह सकता हूँ, चेहरा मेरा
है सारी दुनिया का दर्पण...
जैसा रंग देखना चाहे,
वैसे ही जी लेता हूँ मैं...
पर इस दर्पण में दिखता नही कुछ,
शायद हर चेहरे पर पहली परत है...
हर परत के ऊपर एक परत,
हर परत के नीचे एक कपट है...
शुरुआत कहाँ थी, अंत कहाँ,
कौन भला जाना है अब तक?
हर परतो के भीतर जाने
कितनी सारी प्रक्रियाएं हो;
कितने सारे ख्वाब बने हों...
जाने कितनो की लाश पड़ी हो!
मृत्यु - दिवस त्यौहार मनेगा,
जब टूटेंगी सारी परते,
ना तब भी कोई देख सकेगा
जीवन इन परतो के पीछे;
क्योंकि या तो मैं जलता हूँगा,
या दफ़न रहूँगा, धरती की परतों के नीचे...
फ़िर जाने उसके पीछे का जीवन,
कौन भला चाहा ये अब तक?
1 comment:
Good!! A lot close to making anyone feel restless.
You've shown all the mirror with this one...
Post a Comment