एक काली, स्याह रात
और एक सुनहरे भोर में,
करो अंतर, कहा उसने
मैंने पूछा -
किसी वेश्या के पल्लू
और माँ के आँचल में
कर सकते हो भेद?
तुम रात भर, मंचल कर,
काला कर मुंह उस पल्लू में,
घर लौट सकते हो सुबह
ममतामयी उस गोद में
पर कभी सोचा है,
उस अंधियारी रात को भी
हो सकता है इन्तज़ार उस भोर का?
ठीक वैसे ही
जैसे कोई वेश्या याद कर बचपन के दिन
तिलमिला जाती है माँ से मिलने को;
पर है ये उसके लिए
एक स्वप्न की बात
यूँही रात कितना भी तड़प ले,
भोर को आना है
उसके ख़त्म होने के बाद
2 comments:
marvolous, awsome dear
nice 1..
Post a Comment