Sunday, October 25, 2009

शामँ...

मैं दरवाजे पर आस लगाये खड़ा हुआ था...
दो घूँट पानी और एक प्याली चाय पीकर अभी उठा था...
गुज़रते धूप की कुछ छींटे,
कहीं कहीं पर गिरी हुयी थी...
कुछ पंछी यहाँ-वहां पर बैठे हुए थे...
घुलाम अली के कुछ चुनिन्दा गानों की धुन,
कुछ यादों को दोहरा रही थी...

" ये दिल... ये पागल दिल मेरा...क्यों बुझ गया... आवारगी॥"

हाँ, ये पागल दिल ही तो है,
जो ज़िन्दगी को हर वक़्त नए रंग में रंगता रहता है...
कभी लाल, कभी नीली, कभी काली और कभी बिलकुल सफ़ेद;
जैसे दिन के पहर बदलते रहते हैं...
हर शाम एक सी नहीं रहती...
कौन जाने आज शामँ का रंग क्या होगा?

ये सोचता रहा मैं, और ना जाने कब,
शामँ दबे पाँव मेरे गलियारे में चली आई थी...
धूप की वो छींटे, जो कहीं-कहीं पर गिरी हुयी थीं,
वहाँ-वहाँ से सिमट रही थी...
वो पंछी, जो यहाँ-वहां पर बैठे हुए थे,
वो इधर-उधर अब उड़ने लगे थे...
चाय की प्याली, खाली-खाली सी पड़ी हुयी थी...
मैं मेरे छोटे से घर में,
भटक भटक कर घूम रहा था...
कोई आवारगी-सी थी इस मौसम में,
घुलाम अली के गाने जैसी...
उसकी हर चाल समझ में आती नहीं,
पर एक रिश्ता सा पाता हूँ...
ठीक वैसे ही, जैसे उर्दू के हर शब्द समझ नही आते,
पर कुछ तो बंध जाता है दिल के अन्दर...
जब वापस आया दरवाज़े पर,
खिड़की पर रंग-बिरंगी शामँ को सिमटते हुए पाया था...
एक अँधेरा-सा छा रहा था वहाँ आसमान में...
जैसे बुझा दी हो किसी ने बत्ती वहाँ...
तभी याद आया, मुझे घर में रोशनी करनी थी...
कभी-कभी बाहर की रोशनी ख़त्म होने पर ही,
अंदर के दिए की याद आती है

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