Saturday, March 21, 2015

हवाएँ चली हैं।

This poem was written in 2000 as an ode to to my alma mater, Sainik School Ghodakhal, Nainital. I had just finished my school, and as with most boarders, I was extremely nostalgic about my life and story in that heavenly place, my school. Today, when the school celebrates it's raising day, and incidentally, it's World Poetry Day, I share this old poem, as is, with all of you, my readers :-)

हवाएँ चली हैं,
उड़ाती चली हैं
सड़क के किनारे पड़ी पत्तियों को
जो पतझड़ की रातों में यूँही गिरी थी;
महकती है
फिर से वही गंध, सूँघो
वो जब क्यारियों में उन, कलियाँ खिली थीं;
वही रास्ते हैं जहाँ हम सवेरे
कहीं दूर से दौड़ के लौट आएँ,
वही रास्ते हैं, वही शाम है
जिस पर चलते ही जाएँ, चलते ही जाएँ
वो पर्वत के पीछे से झाँके जो सूरज
तो उससे कहें, "छुप जा जाके तू पीछे!"
वही जो अगर चाँद आये तो बातें,
हो जैसे मुझे मिल गया कोई साथी,
करते ही जाएँ, करते ही जाएँ,
बारिश की रातों में,
गर्मी की शामों में,
सर्दी की धूपों में,
फिर से चली हैं,
हवाएँ चली हैं।

जो मैंने अधूरा सुनाया था तुमको
जुबाँ कह रही है वही गीत गाऊं
बे-होली के होली के रंगो में डूबूँ
बिना दीप के मैं दिवाली मनाऊँ
यादों के दीपक जलाये चली हैं,
हवाएँ चली हैं।

वो मंदिर की घण्टी की ध्वनि से सजी हैं
वो पेड़ो से होकर गुजरती हवाएँ
वो छत की बरफ (बर्फ) से जो होकर गुजरती हैं
खुद को ही ठण्डी बनाती हवाएँ
बंद कमरे के कोने में चादर को ओढ़े हूँ,
फिर  भी ये छूने को आती चली हैं,
हवाएँ चली हैं।

वही कुर्सियाँ हैं, जहाँ बैठकर
हर घडी खुशनुमां गीत गाये थे हमने,
वही मेज है, जिसपर हाथों को अपने
फिराकर के तबले बजाये थे हमने,
वही मंच है जिस पर बोला था मैंने
वही तालियाँ फिर से बजने लगी हैं,
वही घास है जिस पर लेते थे हम सब
वही गोलियाँ फिर से चलने लगी हैं,
वहीँ पर हूँ मैं और वहीँ पर हो तुम भी
वहीँ पर है सब कुछ, मगर ये हैं यादें
धूलों में लिपटी हैं, यादों में सिमटी हैं
मिलने की आशा जगाये चली हैं,
हवाएँ चली हैं।

हर दिन सोचता हूँ नहीं याद आओ
मगर हर शशी (शशि) में तुम्हें देखता हूँ
मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी है
यादों में तुम हो, तुम्ही हो, तुम्ही हो,
तुम्हारे बिना याद आये न मुझको
जिसे याद करने को सोचा है मैंने
तुम्हारी ही यादें, हैं तुमसे ये यादें
तुम्हारे लिए ही ये यादें बनी हैं,
हवाएँ चली हैं।

इन्हे कह तो दूँ अपनी कमज़ोरियाँ
पर इन्ही के सहारे यहाँ मैं खड़ा हूँ
ये सबको डिगाती हैं, सबको हिलाती हैं
पर मेरे कदम को जमाये चली हैं,
हवाएँ चली हैं, चली हैं हवाएँ
हवाएँ चली हैं, हवाएँ चली हैं।